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विश्व मानवाधिकार दिवस: समानता, गरिमा और स्वतंत्रता की वैश्विक प्रतिबद्धता

हर वर्ष 10 दिसंबर को दुनिया भर में विश्व मानवाधिकार दिवस मनाया जाता है। यह दिन उस ऐतिहासिक क्षण की स्मृति है, जब 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को अपनाया था। इसी घोषणा को आधुनिक मानवाधिकार व्यवस्था की आधारशिला माना जाता है। बाद में, वर्ष 1950 में संयुक्त राष्ट्र ने 10 दिसंबर को आधिकारिक रूप से मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। 2025 में यह घोषणा अपनी 77वीं वर्षगांठ पूरी कर रही है। इस वर्ष की थीम मानवाधिकारों के तीन बुनियादी सत्यों को रेखांकित करती है — मानवाधिकार सकारात्मक हैं, आवश्यक हैं और सभी के लिए सुलभ हैं।

मानवाधिकार: हर व्यक्ति की जन्मसिद्ध विरासत

मानवाधिकार वे मूल अधिकार हैं जो व्यक्ति को जन्म से ही प्राप्त होते हैं। इनमें

  • जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार,
  • विचार व अभिव्यक्ति की आज़ादी,
  • शिक्षा और रोजगार का अधिकार,
  • शोषण, दासता और यातना से मुक्ति,
  • समानता और सम्मान के साथ जीने का अधिकार शामिल है।
    इन अधिकारों पर जाति, धर्म, भाषा, लिंग, नस्ल या सामाजिक स्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता — हर इंसान इनका समान रूप से हकदार है।

भारतीय परिप्रेक्ष्य: संविधान से संरक्षण

भारत का स्वतंत्रता आंदोलन मानवाधिकारों की लड़ाई का जीवंत उदाहरण रहा है। इसी भावना को आगे बढ़ाते हुए, भारतीय संविधान ने नागरिकों को मौलिक अधिकारों की व्यापक सुरक्षा प्रदान की है। अनुच्छेद 14 से 21 तथा 23, 24, 39, 43 और 45 जैसे प्रावधान समानता, स्वतंत्रता, धार्मिक आस्था, श्रम सुरक्षा, बाल अधिकार और शिक्षा से जुड़े अधिकारों की गारंटी देते हैं। मानवाधिकारों के संरक्षण के उद्देश्य से 1993 में मानवाधिकार अधिनियम लागू हुआ तथा उसी वर्ष राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना भी की गई। आयोग के दायरे में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ स्वास्थ्य, भोजन, बाल मजदूरी, महिला अधिकार और अल्पसंख्यक मामलों समेत सामाजिक-सांस्कृतिक विषय भी सम्मिलित हैं।

जमीनी सच्चाई: कानून हैं, मगर चुनौती भी

हालांकि कानून और संस्थागत ढांचा मौजूद है, पर व्यवहारिक स्तर पर मानवाधिकारों की रक्षा अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। राजनीतिक बयानबाज़ी में मानवाधिकारों पर जोर तो दिया जाता है, मगर कई बार उनके पालन में इच्छाशक्ति की कमी दिखती है। हिरासत में मौत, महिलाओं पर हिंसा, जातीय भेदभाव, बाल श्रम और धार्मिक असहिष्णुता जैसे मामले आज भी समाज के सामने गंभीर सवाल खड़े करते हैं।

संघर्ष की विरासत

इतिहास गवाह है कि दुनिया में जितनी भी बड़ी जनक्रांतियाँ हुईं, उनके मूल में अधिकारों का हनन ही मुख्य वजह रहा है। समान अधिकारों की मांग के लिए लोगों ने लंबा संघर्ष किया और अनगिनत बलिदान भी दिए। आज भी कई समाजों में लोग अपने बुनियादी अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं।

जागरूकता ही असली कुंजी

मानवाधिकारों की रक्षा केवल सरकारी जिम्मेदारी नहीं है। समाज के हर नागरिक को इसके प्रति सजग होना होगा। अगर मानव ही मानव के दर्द को नहीं समझेगा, तो सिर्फ दिवस मनाने से कोई परिवर्तन नहीं आएगा। जागरूकता, संवेदनशीलता और संवैधानिक मूल्यों के प्रति सम्मान ही मानवाधिकारों को सच्चे अर्थों में जीवंत बना सकता है।

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