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Major Dhyan Chand Death Anniversary: हॉकी के जादूगर को नमन, जिनकी स्टिक से चमका भारत का नाम

मेजर ध्यानचंद डेथ एनिवर्सरी: जिनकी हॉकी आज भी देश को गौरवान्वित करती है

03 दिसंबर भारतीय खेल इतिहास के एक सबसे भावुक अध्याय की याद दिलाता है। इसी दिन साल 1979 में देश ने हॉकी के बेजोड़ खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद को खो दिया था। ‘हॉकी के जादूगर’ कहे जाने वाले ध्यानचंद ने अपनी स्टिक से न सिर्फ गोल किए, बल्कि दुनिया भर में भारत की खेल पहचान को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।

प्रयागराज से ओलंपिक तक का सफर

29 अगस्त 1905 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जन्मे ध्यानचंद के पिता समेश्वर दत्त ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कार्यरत थे। पारिवारिक परंपरा निभाते हुए मात्र 16 वर्ष की उम्र में ध्यानचंद भी सेना में भर्ती हो गए। यहीं से उनके हॉकी खेलने की शुरुआत हुई और जल्द ही उनके खेल का जादू सब पर छा गया।

मैदान पर छा गए ध्यानचंद

1922 से 1926 के बीच रेजिमेंटल मैचों में उन्होंने अपने प्रदर्शन से सभी को प्रभावित किया। सेना की टीम के साथ न्यूजीलैंड दौरे पर गए जहां भारत ने 21 में से 18 मुकाबले जीते। शानदार खेल के लिए ध्यानचंद को ‘लांस नायक’ के पद पर पदोन्नत किया गया। इसके बाद करीब 34 वर्षों तक उन्होंने देश और सेना की सेवा की और 1956 में लेफ्टिनेंट पद से सेवानिवृत्त हुए।

ओलंपिक में भारत के स्वर्णिम हीरो

ध्यानचंद ने 1928, 1932 और 1936 के ओलंपिक में भारत को लगातार तीन स्वर्ण पदक दिलाने में केंद्रीय भूमिका निभाई। 1928 एम्स्टर्डम ओलंपिक में 5 मैचों में 14 गोल कर भारत को अपराजेय चैंपियन बनाया।
1936 के ऐतिहासिक बर्लिन ओलंपिक में भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराकर खिताब जीता। ध्यानचंद के खेल से प्रभावित होकर एडॉल्फ हिटलर ने उन्हें जर्मन सेना में उच्च पद देने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने तत्काल ठुकरा दिया और देशभक्ति को सबसे ऊपर रखा।

आखिरी मैच से पहले संन्यास

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब 1948 ओलंपिक का आयोजन हुआ, तब ध्यानचंद 40 वर्ष से अधिक उम्र के हो चुके थे। उन्होंने खुद ही टीम से दूर रहने का फैसला लिया और युवा खिलाड़ियों को आगे बढ़ने का मौका दिया। माना जाता है कि अपने करियर में उन्होंने 400 से ज्यादा गोल किए।

सम्मान और पहचान

भारतीय हॉकी में उनके अमूल्य योगदान के लिए सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से नवाजा। आज भारत का सर्वोच्च खेल सम्मान ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न पुरस्कार’ उन्हीं की स्मृति में दिया जाता है।

अमर विरासत

03 दिसंबर 1979 को लिवर कैंसर से लंबी जंग के बाद मेजर ध्यानचंद का निधन हो गया। उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम विदाई दी गई।
हालांकि वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी गोल्डन स्टिक्स और जीत की गाथाएं भारतीय खेल इतिहास में हमेशा अमर रहेंगी।

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