संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की कार्यप्रणाली को लेकर बढ़ती चिंताओं के बीच भारत ने परिषद की सहायक संस्थाओं में बेहतर पारदर्शिता और स्पष्ट प्रक्रियाओं की ज़रूरत पर फिर जोर दिया है। भारत का कहना है कि नामांकन संबंधी अनुरोधों को अस्वीकार करने की मौजूदा प्रक्रिया बेहद अस्पष्ट है और सदस्य देशों को पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती।
यूएन में भारत के स्थायी प्रतिनिधि, राजदूत परवथनेनी हरीश, ने सुरक्षा परिषद की कार्यप्रणाली पर हुई खुली बहस में कहा कि संयुक्त राष्ट्र ढांचे में सुरक्षा परिषद केंद्रीय भूमिका निभाती है, लेकिन इसकी सदस्यता सीमित होने के कारण यह आज की वैश्विक ज़रूरतों को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करती। उन्होंने कहा कि परिषद की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता सुनिश्चित करने के लिए इसका विस्तार आवश्यक है।

सहायक इकाइयों में पारदर्शिता की कमी पर भारत की चिंता
हरीश ने कहा कि परिषद की सहायक इकाइयों द्वारा किए जाने वाले निर्णय, विशेषकर नामांकन को खारिज करने की प्रक्रिया, स्पष्ट नहीं है। उन्होंने बताया कि परिषद से बाहर के देशों को इन फैसलों के पीछे के कारणों से अवगत भी नहीं कराया जाता। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि समितियों के अध्यक्षों और ‘पेन-होल्डरशिप’ जैसे अधिकारों को स्वार्थ से प्रेरित राजनीतिक लाभ के साधन के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।
80 साल पुरानी UNSC संरचना में व्यापक सुधार की मांग
भारत ने दो टूक कहा कि दशकों पुरानी परिषद की व्यवस्था अब प्रासंगिक नहीं रही। हरीश ने स्थायी और अस्थायी दोनों श्रेणियों में सदस्यता बढ़ाने और अप्रतिनिधित्वित क्षेत्रों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि इस दिशा में समयबद्ध और पाठ-आधारित वार्ताएँ शुरू होनी चाहिए।
UN के अन्य अंगों के साथ बेहतर तालमेल की जरूरत
भारत ने सुरक्षा परिषद के महासभा जैसे अन्य अंगों के साथ बेहतर समन्वय को आवश्यक बताया। हरीश ने UNSC की वार्षिक रिपोर्ट को केवल एक औपचारिक दस्तावेज़ मानने की प्रथा को बदलने की बात कही और कहा कि रिपोर्ट अधिक विश्लेषणात्मक और उपयोगी होनी चाहिए।
शांतिरक्षा मिशनों में सुधार पर भी जोर
सबसे बड़े सैनिक योगदानकर्ता देशों में शामिल भारत ने कहा कि शांतिरक्षा मिशनों के जनादेश तैयार करते समय सैनिक और पुलिस योगदानकर्ता देशों के सुझावों को प्राथमिकता देनी चाहिए। भारत का कहना है कि राजनीतिक कारणों से प्रासंगिकता खो चुके जनादेशों को जारी रखना संयुक्त राष्ट्र और सदस्य देशों पर अनावश्यक बोझ है।


