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विनोबा भावे: सेवा, सत्य और आत्मिक ज्ञान के पुजारी

विनोबा भावे का सबसे उल्लेखनीय योगदान 1951 में शुरू किया गया भूदान आंदोलन था। उनका उद्देश्य था—भूमिहीन गरीबों को खेती के लिए जमीन मिले, ताकि वे सम्मान से जीवन जी सकें। इसके लिए वे गाँव-गाँव पैदल चलते, जमींदारों से स्वेच्छा से जमीन माँगते और उसे गरीब परिवारों को बाँट देते।
उनका विश्वास था कि— “जब तक संपत्ति का न्यायपूर्ण बंटवारा नहीं होगा, समाज में समानता संभव नहीं है।” यह आंदोलन भारतीय समाज में जमीन और संसाधनों के न्याय के मुद्दे को राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना गया।

अहिंसा और आंतरिक शांति का संदेश

विनोबा भावे का मानना था कि अहिंसा केवल बाहरी व्यवहार से नहीं आती—यह मन की अवस्था है।
वे कहते थे कि— “मन की हिंसा मिटाए बिना अहिंसा संभव नहीं।”
उन्होंने हमेशा शांत, संयमित और दृढ़ रहकर समाज को हिंसक प्रवृत्तियों से दूर रहने का मार्ग दिखाया।

निडरता और विनम्रता का सिद्धांत

उनके जीवन का एक और महत्त्वपूर्ण सूत्र था— “निडरता से प्रगति और विनम्रता से सुरक्षा।”
विनोबा मानते थे कि निर्भय होकर कार्य करना आवश्यक है, लेकिन विनम्रता ही मनुष्य को भीतर से स्थिर और सुरक्षित बनाती है।

अंतिम समय और विरासत

स्वतंत्रता के बाद उन्होंने अपना जीवन वर्धा के पवनार स्थित ब्रह्मविद्या मंदिर आश्रम में बिताया। जीवन के अंतिम दिनों में उन्होंने अन्न-जल का त्याग कर समाधि मरण (जैन परंपरा में संथारा) को स्वीकार किया। 15 नवंबर 1982 को वे इस संसार से विदा हो गए।
उनकी निस्वार्थ सेवा और मानवता के लिए समर्पण के सम्मानस्वरूप उन्हें 1983 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

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